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श्रीमद्भागवत गीता में समत्व योग (योग दिवस विशेष)

योगीश्वर कृष्ण की जय योग दिवस पर विशेष श्रीमद्भागवत गीता में समत्व योग योग शब्द का अर्थ है- मिलन! भौतिक जगत में जिसे 'जोड़ना' कहते हैं, दर्शन या अध्यात्म की भाषा में वही 'योग' हैं। जोड़ना शब्द की स्थूल अर्थ संपदा के प्रकाश में ही भौतिक जीवन में कुछ ऐसे वाक्य व्यवहार में लाये जाते हैं जो दो स्थूल भावों को आपस में संयुक्त करने का संकेत देते हैं जैसे-दो परिवारों का सम्बन्ध जुड़ना,मन से मन को जोड़ना,टूटे हुये रिश्तों को जोड़ना जबकि ठीक इसके विपरीत योग है क्योंकि योग बाह्य जगत से हटकर आंतरिक संसार से मिलन का मार्ग प्रशस्त करता है जैसे-विषादयोग से प्रारंभ होकर मोक्षसंन्यासयोग के सर्वोत्तम शिखर पर पहुंचाने वाली श्रीमद्भागवत गीता आत्मा के परमात्मा के साथ मिलन का संदेश देती है गीता के १८ अध्याय योग साधक की अवस्थाओं की ओर संकेत करते हैं कि क्रम-क्रम करके सकारात्मक गुणों के साथ योग स्थापना से योगी का अपने परम लक्ष्य को प्राप्त होना निश्चित है। अर्जुन के समस्त प्रश्न योगी की प्रारंभिक अवस्था के रूप हैं और १८वा अध्याय योगी की कुंडलिनी जागरण के साथ दिव्य अनुभूतियों से जुड़ने का प्रमाण है जिसके बाद जीवन में किसी भी प्रकार के भय,दुःख या शोक के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता। इस प्रकार गीता परमसत्ता के परमसत्ता के साथ मिलन का पथ प्रदर्शन करती हैं। गीता में अर्जुन आत्मा है और कृष्ण परमात्मा जिनसे मिलकर भी अर्जुन मिलता नहीं है। मोह के कारण उत्पन्न हुए विषाद के कारण आत्मा रूपी अर्जुन का परमात्मा रूपी कृष्ण से जो वियोग होता है उसे श्रीमद्भागवत गीता संयोग में परिवर्तित कर देती है। गीता का विशिष्ट लक्षण है कि यह स्वधर्म पालन के लिये प्रेरित करती है:- "श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥" ये स्वधर्म पालन का भाव मानव में तब ही विकसित होता है जब वह समस्त आसक्तियों का त्याग कर संसार की हर क्रिया में समत्व भाव से जुड़ता है। श्रीमद्भागवतगीता समत्व भाव को योग का पर्याय मानते हुये कहती है:- " योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥" गीता निम्नलिखित रूप में समत्व योग को विश्लेषित करती है:- १) सुख-दुख प्राप्ति में समभाव रखना:- मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने मनोनुकूल जीवन व्यतीत करना चाहता है।संघर्षों से सामान्यत:वह घबराता है इसलिये किसी भी विपरीत परिस्थिति में उसका दु:खी होना स्वाभाविक है किंतु वही मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है ऐसा इसलिये होता है कि वह सुख और दुख को दो अलग-अलग भावों के रूप में देखता है जबकि भारतीय आध्यात्म कहता है कि सुख-दुख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं अर्थात दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दुःख सुख की सत्ता का आभास करवाता है इसी प्रकार सुख भी दुःख की सत्ता को अपने साथ छुपाये रहता है किंतु समत्व योग के अभाव में मनुष्य इन दोनों में भेद करता है। जो मनुष्य समत्व योग का साधक होता है वह इस भाव से ऊपर उठ जाता है। गीता का समत्व योग सीधे-सीधे कहता है कि यदि अपने हिस्से का सुख भोग है तो अपने हिस्से का दुख भोगने की तत्परता भी रखना चाहिये कृष्ण रूपी परमात्मा से मिलन के लिये यह भाव आवश्यक है:- "सुखदुःखे समान कृत्वा लाभालाभौ जयजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥" २) समस्त रागद्वेष की निवृत्ति:- श्रीमद्भागवतगीता में परमात्मा स्वरुप श्रीकृष्ण ने कहा है कि-इस संसार में मेरा न तो किसी से कोई राग है और न किसी से कोई द्वेष है। मैं संसार के प्रत्येक प्राणी में रागद्वेष रहित हूँ इसलिये यदि गीता का समत्व योग कहता है कि आनंद की चरम अवस्था तक पहुँचने के लिये अर्थात परमात्मा से योग स्थापित करने के लिये राग-द्वेष के द्वंद से बाहर आना पड़ेगा। समत्व योग की यह सीढ़ी परमात्मा प्राप्ति की महत्वपूर्ण सीढ़ी है। समत्व भाव योग का योगी साधक अनुभूति के इस आसन पर विरसजमान होता है जहाँ बैठकर उसके अंदर-बाहर का संसार ऐसा हो जाता है:- "रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।" ३)अपने-पराये का सीमांत:- ईश्वर अपने-पराये के भेद से परे है इसलिये गीता भी समत्व योग के माध्यम से अपने-पराये के भेद को त्यागकर आत्मानंद की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होने का संकेत देती है। स्वधर्म पालन के मार्ग पर चलने वाले के लिये गीता प्रतिकूल-अनुकूल के भेद को त्याग देने का मार्ग प्रशस्त करती है:- " समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।" वस्तुतः गीत जीवन जीने की सारणी में मनुष्य को अपने कर्तव्यों के पालन के मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं के प्रति समता का भाव रखने की ओर इंगित करती है । राष्ट्रभक्ति की दृष्टि से गीता के समत्व योग का साधन करना अनुकरणीय है क्योंकि इस के अनुसार मन को तैयार कर लेने वाला मनुष्य सत्कार और दुत्कार दोनों ही स्थिति में अपने कर्तव्य का पालन करने से मुँह नहीं मोड़ता और अपने कर्तव्यपथ पर आंतरिक प्रसन्नता से परिपूर्ण रहते हुये सतत अग्रसर रहता है। गीता का समत्व योग वास्तव में जीवन जीने के महत्वपूर्ण मूल्यों को निर्देशित करता है। वस्तुत योग आंतरिक क्रिया है और इसके करने से मनुष्य आत्मशक्ति,आत्मविश्वास,आत्मबल जैसे गुणों से परिपूर्ण बनता है और ऐसा मनुष्य निश्चित ही समाज,परिवार और राष्ट्र के लिये हितैषी के रूप में सदैव कार्य करता है। भारत की मेधा को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज जो परिदृश्य बन रहा है वो गौरव अनुभूति करवाता है। आदिदेव महादेव के निराकार स्वरूप का प्रतीक ओम योग साधना की प्राणायाम जैसी ध्यान अवस्था का केंद्र बन गया है और योग को स्वीकारने वाला पूरा विश्व एक स्वर में इस प्रणव के उच्चार से स्वयं को पवित्र बना रहा है। यही प्रणव गीता के समत्व योग का मूल प्रतिपाद्य है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर भारतीय योग परंपरा के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक श्रीमद्भागवत गीता के समत्व योग के माध्यम से समस्त पृथ्वी,समस्त विश्व के लिये समभाव और सद्भाव का संदेश प्रेषित है। डॉ. मंदाकिनी शर्मा सहायक प्राध्यापक हिंदी विभाग माधव महाविद्यालय सम्पादक इंगित पत्रिका मध्यभारतीय हिंदी साहित्य सभा,ग्वालियर