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संत वैरागी का राष्ट्र अनुराग.... (९ जून बंदा वैरागी के बलिदान दिवस पर स्मरण)

(९ जून बंदा वैरागी के बलिदान दिवस पर स्मरण) त्याग पुरातन पट-सा यह तनु रखूँगा मैं नूतन देह नया वसन पहन करूँगा फिर निज साधन निस्संदेह क्रांतिधरा और वीर जननी के रूप में अपनी दिव्य तथा पावन छवि रखने वाली हमारी अपनी मातृभूमि पर हमारे अपने कुटुंब में ऐसे साहसी,पराक्रमी तथा तेजस्वी पुत-सपूतों पुतियो- सपूतियो का जन्म हुआ जो अपनी 'जननी जन्मभूमि' की रज-कण के आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिये अपनी नश्वर एवं क्षरित हो जाने वाली देह का त्याग करने और अपनी 'जन्मभूमि' के लिये अपने अनंत जन्मों को न्योछावर कर देने की अनोखी चाह लेकर जिये और मर गये। मुझे स्वगति के लिए प्रलय तक नहीं देखनी होगी राह आज न हो, कल, नये जन्म में पूरी होगी मेरी चाह भारत का स्वर्ग कही जाने वाली भारतीय भूमि अर्थात 'कश्मीर' में १७वीं सदी में भारद्वाज गोत्रिय ऐसे ही एक वीर बालक का जन्म हुआ। इस शौर्यवान बालक के भारत की इस पवित्र धरा धाम में आने की यह घटना विक्रम संवत १७२७ कार्तिक शुक्ल पक्ष त्रयोदशी(१६७०ई.) की है। कश्मीर के पुँछ जिले की राजौरी तहसील में २७ अक्टूबर १६७०ई. को श्री रामदेव नामक भारद्वाज गोत्रिय एक किसान ब्राह्मण के यहाँ भारत माता के लिए तथा हिंदुओं की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये स्वयं को बलिदान कर देने वाले तेजस्वी पुत्र बंदा बैरागी का जन्म हुआ। बंदा बैरागी अपने प्रारंभिक जीवन में अर्थात जन्म से लेकर १५ वर्ष की आयु तक लक्ष्मणदेव के रूप में पहचाने जाते रहे किंतु अपने जीवन के १५ वे वर्ष में जब उनके हाथों एक गर्भवती हिरणी का वध हो गया तब "जीवन जिसकी इच्छा पर,उसकी इच्छा पर मृत्यु" जैसे रहस्य को जान लेने के कारण उन्हें संसार के सारे कार्य-उद्योग के लिये निर्मोही बना दिया अतः इस मोहभंग की अवस्था के चलते बंदा बैरागी ने घर का त्याग कर दिया और नांदेड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे। बाबा जानकीदास और बाबा रामदास जैसे गुरुओं का आशीर्वाद और आश्रय पाकर वे लक्ष्मणदेव से माधोदास वैरागी बन गये और इसके बाद बंदा बैरागी का शांति एवं सद्भाव की पगडंडी पर चलने वाला संन्यासी जीवन प्रारंभ हुआ। जब बंदा बैरागी नांदेड के आश्रम में निवासरत थे तब सिक्खों के दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंह जी ने आकर उन्हें हिंदुओं तथा सिक्खों पर मुगलों के द्वारा किये जा रहे अत्याचारों जैसे -गुरुगोविंद सिंह के बेटों को जिंदा दीवार में चिनवा देना,गुरु तेगबहादुर का सिर काट देना तथा अनेक हिंदुओं को मौत के घाट उतार देने जैसी घटनाओं से अवगत कराया और संन्यास से भी ऊपर उठकर मातृभूमि की रक्षा के लिये सैन्य जीवन जीने के लिये यह कहते हुये प्रेरित किया :- यह लो अमर कटारी यवनों के लोहू से स्नात। अब निश्चय मैं देख रहा हूँ भारत का अरुण प्रभात।। अर्थात बन्दा बहादुर बैरागी जी को जन्मभूमि को आततायी शासकों से मुक्त करवाने के लिये जाग्रति गुरु गोविंद सिंह जी ने दी । गुरुगोविंद सिंह जी के उपदेशों के प्रभाव से बंदा बैरागी संन्यासी जीवन को त्यागकर सेनानायक के रूप में हिंदू-सिक्ख उद्धारक बनने की राह पर चल पड़े। "यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मनम सृजनमयम"श्लोक का जप करते हुये बंदा वैरागी ने विधर्मियों के विरुद्ध धर्मयुद्ध का शंखनाद किया और सर्वप्रथम गुरु तेग बहादुर का शीश काटने वाले जलालुद्दीन का सिर काटा इसके बाद गुरु गोविंद सिंह के बेटों की हत्या करने वाले सरहिंद के नवाब वजीर खान को मारा। १२ मई १७१०ई. को हुये इस निर्णायक युद्ध को इतिहास में 'छप्पर चिरी' की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस विजय के साथ ही बंदा बैरागी के नेतृत्व में हिंदुओं तथा सिक्खों का साम्राज्य सरहिंद से लेकर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तारित हो गया। बंदा बैरागी के शौर्य तथा पराक्रम के बल पर 'खालसा'नाम से सिक्ख राज्य की स्थापना भी हुई। भारत जैसी क्रांतिधरा के बंदा बैरागी जैसे वीर ने मुगलों की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के लिये लगभग १४ युद्ध लड़े जिनमें से ६ लड़ाई बंदा बैरागी के सेनानायकत्व में सिक्खों द्वारा जीती गईं। बंदा वैरागी द्वारा मुगलों की नींव हिला देने वाली ये महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ निम्नलिखित हैं:- १)१७०९ में 'सोनीपत' की लड़ाई हुई जिसमें मुगलों के विरुद्ध बंदा बैरागी के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए एक निर्णायक लड़ाई लड़ी विजय प्राप्त की। २) १७०९ में ही 'समाना' की लड़ाई बंदा सिंह बहादुर और सहूलियते मुगल सरकार के बीच हुई इस लड़ाई का परिणाम भी बंदा बैरागी की विजय ही रहा । ३)१२मई १७१० में 'छप्पर चिरी' की लड़ाई जिसे 'सरहिंद' की लड़ाई के नाम से भी जाना जाता है हुई। इस लड़ाई में बंदा बैरागी के साथ बाबा बाज सिंह, विनोद सिंह तथा भाई फतेह सिंह जी ने भी अपने पराक्रम का परिचय देते हुये मुगलों से जमकर युद्ध किया। इस लड़ाई में बंदा बैरागी ने गुरु गोविंद सिंह जी के बच्चों को मारने वाले वजीर खान को दंड स्वरूप मृत्यु दी। वजीर खान की सेना का पराजित होना सिक्खों और हिंदुओं के लिये गौरव का विषय बना। उनके खोये हुये आत्मविश्वास को संबल मिला। ४) १७१०ई. में ही 'सढोरा' की लड़ाई बंदा बैरागी जी के नेतृत्व में सिक्खों ने सैयदों तथा शेखों की संयुक्त सेना के साथ लड़ी। इसमें भी बंदा बैरागी ने उस्मान खान को हराकर सढोरा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। ५) जुलाई १७१०ई. में 'सहारनपुर' की लड़ाई में भी मुगल सेना को बंदा बैरागी और उनकी सेना ने पराजित किया । ६)११अक्टूबर १७१०ई. में 'राहोंन' की लड़ाई हुई जिसमें बंदा बैरागी ने शमास खान को पराजित किया । इस प्रकार बंदा बैरागी ने मुगल शासकों के साथ लड़ाई कर हिंदुओं के खोए हुये स्वाभिमान की रक्षा की और उन पर हुये अत्याचार का वीरतापूर्ण उत्तर दिया। मुगलों से अपने शौर्य, पराक्रम तथा वीरता का लौहा मनवा लेने वाले इस ब्राह्मण वंशीय हिंदू केसरी सेनानायक को फरवरी १७१६ में विधर्मियों द्वारा बंदी बना लिया गया। फरुखसियर और अब्दुल समद खाँ की सम्मिलित सेना का दिसंबर १७१५ई. से फरवरी १७१६ई. तक डटकर सामना करने के बाद यह वीर सैनिक अपने ७८४ बहादुर साथियों के साथ गुरदास नंगल गाँव में कैद कर लिया गया । मुगलों की कैद में रहते हुये बंदा बैरागी ने लगभग ५ महीने तक घोर यातना भोगी और सबसे ज्यादा अमानवीय यातना उनके अपने अबोध पुत्र अजय सिंह की उनके ही सामने की गई हत्या थी सभी यातनाओं को हँसते-हँसते सह लेने वाले बन्दा वैरागी से जब उनके धैर्य के लिये अचंभित हो पूछा गया कि- इतनी पीड़ा मिलने पर भी तुम कैसे प्रसन्न हो?तब बन्दा वैरागी ने कहा:-"जो आत्मा के स्वरूप को पहचानता है वह इस बात को भी जानता है कि आत्मा अमर है तथा दुःखातीत है।"मुगलों का एकसूत्रीय एजेंडा कि तलवार और अत्याचार के बल पर हिंदुओं से धर्म परिवर्तन करवाना-का इस निष्काम कर्मयोगी पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं हुआ मानसिक और शरीरिक पीड़ाओं के चक्रव्यूह में फंसे रहना स्वीकार किया किंतु फिर भी ये वीर सेनानी मुगलों के सामने ना झुका और ना ही डरा बल्कि ऐसी विकट परिस्थितियों में भी निम्बार्क संप्रदाय और निर्मोही अखाड़े के संत महंत किशोरदास जी के निर्मोही अखाड़े मठ से अपनी युद्ध नीति तैयार करने वाले इस दिव्य त्यागी ने गीता ज्ञान का स्मरण रखते हुए बादशाह से निडर हो कह दिया:- आत्मा ना मरता है,न मारता है सुन मेरी गीता का ज्ञान। और ९ जून १७१६ई. को इस बलिदानी ने हिंदू उत्थान यज्ञ में अपने प्राणों की दिव्य आहुति दे दी। बंदा बैरागी की देशभक्ति से भरी जीवन गाथा को भारत की तीन महत्वपूर्ण भाषाओं हिंदी,बंगाली और मराठी के तीन महत्वपूर्ण रचनाकारों राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, नोबेल प्राप्त रविंद्रनाथ टैगोर और स्वतंत्रता का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले वीर सावरकर ने लिपिबद्ध किया है। वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारी तो वैरागी के त्याग और बलिदान से प्रेरित हो अंग्रेजों से निर्भय होकर लड़ पाये और कालेपानी की सजा को काट पाये। सावरकर ने बंदा बैरागी को महावीर,दिव्यत्यागी,प्रकांड देशभक्त, रणयोद्धा, अलौकिक देशप्रेमी तथा कर्मयोगी जैसे विशेषणों से अलंकृत किया और उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुये लिखा है कि-"बंदा वैरागी मूलतः वैष्णव संत थे...हिंदू इतिहास से उस वीर शहीद का नाम कभी भी नहीं मिटाया जा सकता जिन्होंने मुगलों द्वारा हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार का न केवल विरोध किया बल्कि उन पर सशस्त्र आक्रमण भी किया" इतना ही नहीं मुस्लिम इतिहासकार मि.लतीफ ने भी बन्दा वैरागी की जन्मभूमि प्रेम को व्यक्त करते हुये कहा है:-"इन वीरों ने लापरवाही से मौत का स्वागत किया-यही नहीं अपितु परस्पर शहादत का अमृत पीने के लिये एक-दूसरे से आगे बढ़कर उत्सुकता प्रकट करने लगे।" इसी क्रम में रविंद्रनाथ टैगोर ने ' बंदी बीर' शीर्षक से,राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने 'बंदा वैरागी' शीर्षक से और वीर सावरकर जी ने 'अमरमृत' शीर्षक से इस महावीर कर्मयोगी का शौर्य भरा यश गान किया है। बंदा सिंह बहादुर बैरागी जी के सम्बन्ध में प्रमाणिक जानकारी देने वाले साहित्यकारों और इतिहासकारों में ब्रिटिश इतिहासकार टॉड की पुस्तक-ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया,भाई परमानन्द की पुस्तक -वीर वैरागी(इस पुस्तक का दामोदर सावरकर जी ने मराठी में अनुवाद किया),राकेश कुमार आर्य की पुस्तक-हिन्दू राष्ट्र स्वप्नद्रष्टा बन्दा वीर बैरागी इत्यादि उल्लेखनीय हैं।आज आवश्यकता है कि हम अपने भारतवंशी उत्तराधिकारियों को इतिहास के बंद कर दिये गये इन महत्वपूर्ण पृष्ठों को खोलकर पढ़ने के लिये न केवल प्रेरित करें वरन उनमें इन्हें पढ़कर समझने की इच्छा शक्ति भी भरें ताकि वे अपनी जन्मभूमि के लिये मरमिटे वीरों के प्रति श्रद्धा से आपूरित हों। तो आइये हम मिलकर क्रांतिधरा भारत के इस तेजस्वी पुत्र की आत्म- ज्ञान, वैराग्य, पराक्रम,स्वाभिमान, साहस एवं गौरव से भरी-पूरी बलिदानी जीवनगाथा का राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता 'बंदा-वैरागी' के माध्यम से पुनः पुण्य स्मरण करते हैं:- " बादशाह ने पूछा- तुझको कैसी मौत चाहिये, बोल? धीरे से बोला बैरागी- मूँदे हुये नेत्र निज खोल जीवन जिसकी इच्छा पर है उसकी ही इच्छा पर मृत्यु छोड़ जाएगी स्वयं तुझे भी क्या तेरी भिक्षा पर मृत्यु ? आत्मा मरता है ना मारता, सुन मेरी गीता का ज्ञान मरने और मारने वाला इसे जानते हैं अनजान। त्याग पुरातन पट-सा यह तनु रखूँगा मैं नूतन देह नया वसन-सा पहन करूँगा फिर निज साधन निस्संदेह बदला करता है यह आत्मा बार-बार वपु रूपी वस्त्र न तो जला सकती है ज्वाला, न तो काट सकते हैं शस्त्र मुझे स्वगति के लिये प्रलय तक नहीं देखनी होगी राह आज ना हो,कल, नये जन्म में पूरी होगी मेरी चाह।" डॉ. मंदाकिनी शर्मा सहायक प्राध्यापक हिंदी विभाग माधव महाविद्यालय, लश्कर साहित्य मंत्री एवं सम्पादक इंगित पत्रिका मध्यभारतीय हिंदी साहित्य सभा,लश्कर,ग्वा. म.प्र.