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गुरु संस्कृति एवं समृद्धि दोनों की रक्षा का केंद्र बिंदु है ....(गुरु पूर्णिमा पर विशेष....)

गुरु पूर्णिमा पर विशेष... गुरु संस्कृति एवं समृद्धि दोनों की रक्षा का केंद्र बिंदु है.......... भारतीय संस्कृति में विशुद्ध ज्ञान की धारा को गुरु -शिष्य परंपरा के रूप में सहस्त्राब्दीयों से पूर्ण शुद्धता के साथ प्रवाहित किया जा रहा है। वह गुरु ही है जो आज की आधुनिक भाषा में शिक्षक शिक्षक के रूप में जाना जाता है । वह समाज का सबसे सम्मानित व्यक्ति है, क्योंकि शिक्षक न केवल शिक्षा का अपितु समाज में संस्कृति एवं समृद्धि दोनों की रक्षा का केंद्र बिंदु है । यह आज भी सत्य है केवल पश्चिम के प्रभाव के कारण हमने इसको विस्मृत कर दिया है । वर्तमान स्थिति में गुरु-शिष्य संबंध बदलते परिवेश में दिखाई देते हैं सम्मान और आदर की भावना के स्थान पर वे स्वयं को या तो शिक्षकों के बराबर या कई बार उनसे योग्य समझने लगते हैं। इतिहास साक्षी है गुरुजनों के अनादर के दुष्परिणाम अनेक लोगों को अपने जीवन में भुगतने पड़े हैं। दानवीर कर्ण का नाम इस दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है अपना मूल वर्ण छिपाने के कारण गुरुदेव के श्राप के परिणाम स्वरूप अंतिम युद्ध में उनकी विद्या निष्फल हो गई और उन्हें अपने प्राण तक गंवाने पड़े । इसके विपरीत एकलव्य की कथा पर विचार किया जाए तो हम देखते हैं कि गुरु की अनुपस्थिति में अत्यंत आदर के परिणाम स्वरूप एकलव्य सारी शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो सके। श्रद्धा पूर्वक असंभव लगने वाली गुरु दक्षिणा देने पर भी एकलव्य ने संधान की नूतन विधि प्रचलित की। आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर संधान प्रतिस्पर्धा में अंगूठे का प्रयोग नहीं किया जाता, प्रथम दो उंगलियां तर्जनी एवं मध्यमा का प्रयोग बाण पकड़ने और प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए किया जाता है । भारतीय शिक्षण मंडल के संगठन गीत में अत्यंत महत्वपूर्ण पंक्ति एकलव्य से शिष्य बने सब शिक्षक सब चाणक्य समान शिष्य और गुरु कैसे होने चाहिए , उसका जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। शिक्षक सम्मानित होगा तो समाज स्वाभिमानी बनेगा, राष्ट्र समर्थ होगा और मानवता का वास्तविक कल्याण करने में सक्षम बनेगा। यही पूर्ण विकास की भारतीय अवधारणा है। आज पूरा विश्व भारत की ओर मार्गदर्शन की अपेक्षा से देख रहा है। भारत अपने सांस्कृतिक जीवन धेय को तभी पूर्ण कर सकेगा जब समाज में शिक्षक प्रतिष्ठित होगा। हमारी परंपरा में यह मान्यता है कि पूर्व जन्मों की संचित पुण्याई से इस जन्म का कर्म निर्धारित होता है। महान पुण्य आत्माओं को ही आचार्य बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है, क्योकि आचार्य केवल छात्रों का ही भविष्य नहीं गढ़ते अपितु पूरी मानवता का मार्ग प्रशस्त करते हैं । शिक्षक का सम्मान एवं उस पर पूर्ण विश्वास ही वर्तमान में सर्वव्यापी नैतिक पतन का स्थाई समाधान है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शिक्षक स्वयं अपने मन में शिक्षक होने का गर्व अनुभव करें। वह एक्सीडेंटली शिक्षक बना है और कोई नौकरी नहीं मिली इसलिए शिक्षक बन गया ,ऐसे भाव समाज का उत्थान नहीं कर सकते ,क्योंकि शिक्षक समाज का मार्गदर्शक है वह स्वयं गौरवान्वित अनुभव करेगा ,सम्मानित होगा तभी समाज ठीक दिशा में जाएगा। भारतवर्ष में संगीत परंपरा आज भी मूल गुरु के नाम से जानी जाती है। संगीत के शिष्य गुरुदेव के नाम उच्चारण करते समय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं इतना ही नहीं वे गुरु के नाम का उच्चारण करते समय आदर पूर्वक स्वयं के कानों को स्पर्श करते हैं। ऐसे ही गुरु के प्रति आदर के अनेक उदाहरण हमारे समाज में भरे पड़े हैं । पश्चिम के प्रभाव के कारण जो वातावरण निर्मित हुआ है उससे उवर कर पुनः गुरु- शिष्य परंपरा के मूल स्वरूप की ओर लौटने की आवश्यकता है। गुरु पूर्णिमा (व्यास पूजा )के दिन हम केवल महर्षि व्यास का स्मरण ही नहीं करते अपितु उस निमित्त भारत की समृद्ध गुरु परंपरा का भी सम्मान करते हैं । यदि हम वर्तमान शिक्षकों का अपमान करेंगे या उनके बारे में मन में विपरीत सोच रखेंगे तो फिर हम उस गुरु परंपरा का ही अपमान करेंगे । अतः मूल्यांकन के बाद नहीं अपितु शिक्षक है इस बात के लिए ही प्रत्येक शिक्षक का सम्मान करना भारतीय होने के नाते हमारा पुनीत कर्तव्य है । आज के यंत्र प्रधान युग में चर्चा होती है कि इंटरनेट या गूगल गुरु शिक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं। शिक्षक, विद्यालय इत्यादि की आवश्यकता को नकारना , शोभाचार कहना फैशन बन गया है ,किंतु जहां अनुभव के आधार पर शिक्षा देनी पड़ती है वहां शिक्षक का कोई विकल्प नहीं है । भावना ,प्रेम आचरण ,त्याग आदि मनोभाव कोई गूगल गुरु नहीं दे सकता । तैरना सीखने के लिए व्यवहारिक रूप से ज्ञान प्राप्त करना ही आवश्यक है । मूर्तिकला में शिक्षक ही पत्थर का चुनाव मूर्ति के चेहरे केभाव एवं सूक्ष्म भंगिमा सिखाते हैं। सनातन भारतीय परंपरा में अनुभूति को ही ज्ञान कहा गया है । केवल जानकारी ज्ञान नहीं होती। यंत्र जानकारियों का संग्रहण ,संप्रेषण और स्मरण करा सकते हैं ,किंतु ज्ञानाभूति प्राणवान प्रक्रिया है ,अतः शिक्षक के द्वारा ही यह संभव है । गुरु -शिष्य संबंधों में स्नेह और आदर होने से ही अनुभूति के द्वार खुलते हैं । गुरु पूर्णिमा (व्यास पूजा )का यह अवसर इन संबंधों की पुष्टि एवं नियमित पुनर वृद्धि का पुनीत अवसर है। आइए गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा का समर्पण कर हम भी समाज उत्थान में अपना योग दें। डॉ शिवकुमार शर्मा अध्यक्ष हिंदी विभाग माधव महाविद्यालय, ग्वालियर